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नील गगन में चढ़ती जातीं
पंख तितलियों से फहरातीं
उड़ती हैं उन्मत्त, पतंगें
कितनी हैं जीवंत!
चित्रकार की भरी तूलिका
जैसी फिरतीं नभ मंडल में
रंग- बिरंगी छवि उकेरतीं
दिशा- दिशा, अंचल- अंचल में
होकर ज्यों आसक्त, रंगा है
देखो पूर्ण दिगंत!
उँगली से है डोर बँधी पर
संचालित यह धड़कन से
उठना- गिरना, झुकना- मुड़ना
होता सब साधक- मन से
रोम- रोम अनुरक्त
बरसता
उर में मृदुल बसंत!
मात्र नहीं कागज का टुकड़ा
कर में युग की संस्कृति बाँधे
सिर्फ नहीं यह कच्ची डोरी
संस्कार सदियों की साधे
अपने संग समस्त-
उड़ानें
इसकी रहीं अनंत!
- प्रताप नारायण सिंह |