|
लौटी एक पतंग |
|
दुहरावों का दौर है,
दुविधाओं में छोर
बनूँ अगर तो क्या बनूँ? इक पतंग या डोर
मैं पतंग की पूर्णता, मैं पतंग के प्राण
विडम्बना कहती फिरे, डोर माँगती त्राण
डोर-डोर का द्वंद्व था, थी पतंग अनभिज्ञ
मिला अभागिन को नहीं, कोई कभी सुविज्ञ
इच्छाओं की पोटली, सत्कर्मों का संग
ऊर्जा में अठखेलियाँ, पाया नाम पतंग
ऊपर भी बिखरे पड़े, नीचेवाले रंग
यही बताकर है गयी, लौटी एक पतंग
- कुमार गौरव अजीतेन्दु
१ जनवरी २०२३ |
|
|
|
|
|