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     .उड़ती पतंगें शान से

 
आकाश में उड़ती पतंगें, शान से फहरा रहीं
इठला रही, हैं सोच कर, वे
झूमती इतरा रहीं

बच्चे, बड़े, अनजान भी, सब हैं बड़े उत्सांह में
ऊँची चलीं वे झूम के हवा के प्रबल प्रवाह में,
कितने रंगों में उड़ रहीं, मिल कर
सभी मगरा रहीं

उलझीं कभी या कट गईं, वे चल पड़ीं गंतव्य को
बच्चे सभी भागें पकड़ने ज्यों किसी भवितव्य को
मिल कर सभी से झुंड में, मदमस्त
वे मँडरा रहीं

फँस गईं, उलझी कहीं, कोई नहीं शिकवे गिले
मेले दुकेले में मिलें, जैसे सभी मिलते गले
वैसे उलझ कर सब मिलें, फिर
छूट कर लहरा रहीं

जब भी कटें वे दर्द दें, तब भी नहीं दिग्मूढ़ हों
फिर दुगुन उत्साह से वे, चल पड़ें आरूढ़ हों
बेटी विदा होती घरों से, आँख
ज्यों पथरा रहीं

जीवन पतँग है डोर साँसे, हाथ में है ज़िं‍दगी
आकाश में दिल थाम के उड़ती करें वे बंदगी
कोई कहाँ तक साथ देगा
सोचकर घबरा रहीं

खुश करें सब को सखी चल, टूट कर पुरवार से
सबको अकेले पार जाना, छूट कर संसार से
‘आकुल’ पतंगें ज़िंदगी का सच
यही बतरा रहीं

- आकुल
१ जनवरी २०२३

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