जीने के लिए
दहशत दिशाओं में
हवाएँ गर्म
गंधक से, गरल से,
किंतु मंज़िल तक
थपेड़े झेल कर
अविराम चलना है!
शिखाएँ अग्नि की
सैलाब-सी
रह-रह उमड़ती हैं;
किन्तु मंज़िल तक
चटख कर टूटते शोलों-भरे
वीरान रास्तों से
गुज़रना है,
तपन सहना
झुलसना और जलना है!
सुरंगें हैं बिछी बारूद की
चारों तरफ़
नदियों पहाड़ों जंगलों में,
किंतु मंज़िल तक
अकेले
खाइयों, खंदकों को
लौह के पैरों तले
हर बार दलना है!
24 दिसंबर 2007
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