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बस, तुम्हारी याद
आज यह बेहद पुरानी बात की
ध्यान में फिर बन रही तसवीर क्यों?
आज फिर से उस विदा की रात-सा
आ रहा है नयन में यह नीर क्यों?
सिर्फ़ जब उन्माद मेरे साथ है!
बस, तुम्हारी याद मेरे साथ है!
कह रही है हूक भर यह चातकी
'प्रेम का यह पंथ है कितना कठिन,
विश्व बाधक देख पाता है नहीं
शेष रहती भूल जाने की जलन!'
बस, यही फ़रियाद मेरे साथ है!
बस, तुम्हारी याद मेरे साथ है!
पर, तुम्हारी याद जीवन-साध की
वह अमिट रेखा बनी सिन्दूर की,
आज जिसके सामने किंचित नहीं
प्राण को चिंता तुम्हारे दूर की,
देखने को चाँद मेरे साथ है!
बस, तुम्हारी याद मेरे साथ है!
२३ फरवरी २००९ |