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गुच्छे भर अमलतास-मरुधरा
                -आतप
                -विरक्ति

  आषाढ़ बीतने पर

ऐसे भी दिन आएँगे
पता नहीं था

सूनी-सूनी दोपहरी में
सुधियों के जंगल घूमेंगे
ताल-तलैया, खेत-मड़ैया
बेरौनक, बिछड़े हुए समैया
सूनी-सूनी आँखों में
सपनों का बिखराव
पंछी अब बिरहा गाएँगे
पता नहीं था ऐसे भी दिन आएँगे

अमलतास पीले-पीले छितराए थे
चंपा धीमी-धीमी महक रही थी
सेमल, टेसू दमक रहे थे
अब तो बस
अंजुरी भर फूल भरे
गुलमोहर खड़ा है
बगनबेलिया का रंग निखरा है

अमराई की गंध खो गई
कोयल की मीठी
कूक नहीं
भौंरे भी अब क्या गाएँगे

पता नहीं था
ऐसे भी दिन आएँगे

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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