शाम-सुबह महकी हुई
शाम-सुबह महकी हुई
देह बहुत बहकी हुई
ऐसा रूप कि बंजर-सा मन
चंदन-चंदन हो गया।
रोम-रोम सपना सँवरा
पोर-पोर जीवन निखरा
अधरों की तृष्णा धोने
बूँद-बूँद जलधर बिखरा।
परिमल पल होने लगे
प्राण कहीं खोने लगे
ऐसा रूप कि
पतझर-सा मन
सावन-सावन होने लगा।
दूर हुई तनहाइयाँ
गमक उठी अमराइयाँ
घाटी में झरने उतरे
गले मिली परछाइयाँ।
फूलों-सा खिलता हुआ
लहारों-सा हिलता हुआ
ऐसा रूप कि
खण्डहर सा मन
मधुवन-मधुवन होने लगा।
डूबें भी उतराएँ भी
खिलें भी और कुम्हलाएँ भी
घुलें-मिलें तो कभी-कभी
मिलने मे शरमाएँ भी।
नील वरन गहराइयाँ
सासों में शहनाइयाँ
ऐसा रूप कि सरवर-सा मन
दर्पण-दर्पण हो गया।
१ जुलाई २००५
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