प्यार लिखो हत्या लिख जाए
घर बैठो तो घर दौड़ाए
बाहर निकलो शहर डराए
घर के बाहर तक खामोशी
भीतर-भीतर मन घबराए।
कोई खिड़की नहीं खोलता
पत्ता तक भी नहीं डोलता
कितना बेदम हुआ आदमी
खुद तक से भी नहीं बोलता।
नींद नहीं बच्चों को आए
और अगर आए तो लाए
रक्त-सने हाथों में जकड़े
लथपथ मासूमों के साये।
मंदिर-मस्जिद के रिश्तों में
घोल रहे हैं विष किस्तों में
जो इनको वीरान कर रहीं
वहीं किताबें हैं बस्तों में।
सपनों में पटियाला आए
जागो भागलपुर दहलाए
कलम नहीं चलती काग़ज़ पर
प्यार लिखो हत्या लिख जाए।
१ जुलाई २००५
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