अनुभूति में
श्याम निर्मम
की रचनाएँ
गीतों में-
क्यों सिंगार बिखरा-बिखरा
जितना खेल सकता खेल
जीते हुए हार जाते हैं
तुम अमर बनो
दिखे नहीं छाया
पूरा देश हमारा घर
मौन किसका दोष
रोशनी का तूर्य बन
वो आँखों
की पुतली
सुख हमको डाँटे
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जीते हुए
हार जाते हैं
अक्सर ही
ऐसा क्यों होता, सपने बहुत बुरे आते हैं,
डर कर नींद उचट जाती है!
जिधर देखता
भाग रहे सब चारों तरफ आग फैली है,
सागर में तूफान उठा है हर सूरत ही मटमैली है।
अक्सर-ही-ऐसा-क्यों-जाना-निर्बल-सँभल-सँभल-जाते-हैं
क्षमता रपट-रपट जाती है!
हर चेहरा है
शकुनि सरीखा चौपड़ पर गोटियाँ सजी हैं,
रणभेरी के शंख गूँजते मौन मुरलियाँ नहीं बजी हैं।
अक्सर ही ऐसा क्यों देखा-
जीते हुए हार जाते हैं
बाजी उलट-पलट जाती
है!
प्रतिभाएँ हारी-सी बैठीं अपराधी
माला पहने हैं,
कुछ-को-सुख-की-मिली-विरासत-हमको-दुख-अपार-सहने-हैं।
अक्सर-ही-ऐसा
क्यों समझे हर जीवन की कुछ उम्मीदें
बन कर साँस सिमट जाती है!
२८ जनवरी २०१३
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