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मीरा
स्याम के नाम कौं थाम के प्रीत के, धाम में नाम कमा गई मीरा।
जीवन के इकतारे के तार पै, एक ही नाम रमा गई मीरा।
जोगी जपी औ' तपी सबके कर, प्रीति की रीति थमा गई मीरा।
प्रान समाये जो स्याम उन्हीं में, सरीर समेत समा गई मीरा।
धूरि भरी गलियान फिरी सुख, वैभव बीच पली भई मीरा।
साज समाज के रोके स्र्की नहीं, प्रीत के पंथ चली भई मीरा।
रार्ग विराग के बीच रही अनुराग के सांचे ढ़ली भई मीरा।
मोहन मोहन गावत गावत मोहन की मुरली भई मीरा।
जोरि लियौ मनमोहन सौं मन, मीरा भई मधुरा मुरली सी।
झांझ मंजीरा बजावत गावत, प्रेम पराग पगी पगली सी ।
स्याम के रंग रंगी सी लगै कछु प्रेम के ढ़ंग में डोलै ढ़ली सी।
देह खिली कचनार कली सी औ, बोली भई मिसिरी की डली सी।
राज घराने में ब्याही गई पर, स्याम सखा की सहेली थी मीरा ।
लाल जवाहर त्याग के सांवरी, मूरत के संग खेली थी मीरा ।
स्याम बिना सुलझी न कबहूँ, इक ऐसी ही प्रेम पहेली थी मीरा ।
प्रेम की ऐसी मिसाल भई जग, में जनु प्रेमी अकेली थी मीरा।
भक्ति के द्वार पे भाव के रंग, से एक अनोखी रंगोली बनायी।
चंदन सो तन प्रेम की घाघर, प्रेम की चूनर चोली बनायी।।
स्याम कौ नाम बसै जिहि मैं कछु, ऐसी ही प्रीत की बोली बनायी।
मीरा नै छांड़ के संगी सबै, अंसुवान लड़ी हमजोली बनायी।
जीत लियौ जग कौ सब ज्ञान, जो मंतर पावन प्रेम कौ सीखौ।
प्रेम कौ अंजन आँज के नैनन, प्रेम ही प्रेम सबै जग दीखौ ।
प्रेम कौ अमृत घोरि पियौ, अस्र् मीरा पचा गई हलाहल तीखौ।
मीरा सी साधिका स्याम सौं साध्य औ साधन कोई न प्रेम सरीखौ।
१ जून २००५
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