अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

शुभ दीपावली

अनुभूति पर दीपावली कविताओं की तीसरा संग्रह
पहला संग्रह
ज्योति पर्व
दूसरा संग्रह दिए जलाओ

दीप

दीप! तुम्हारी ज्योति भले ही मद्धम है
एकाकी जलते हो तुम, यह क्या कम है।

युग का हर संताप तुम्हें ढोना होगा
अँधियारे का हर कलंक धोना होगा
तम की छाती पर किरनें बिखराने में
अपना यह अस्तित्व तुम्हें खोना होगा

ज्योति लुटा कर मिट जाओ तो क्या गम है।
एकाकी जलते हो तुम, यह क्या कम है।

संघर्षित हो पली प्राण बाती कोमल
संचित करते रहे हृदय में स्नेह तरल
अब हँसते हो और कभी मुस्काते हो
रोम-रोम में लिए दहकता दावानल

उजली किरनों से भयभीत हुआ तम है।
एकाकी जलते हो तुम, यह क्या कम है।

-डॉ. सरिता शर्मा
16 अक्तूबर 2006

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter