दीप! तुम्हारी ज्योति भले ही मद्धम है
एकाकी जलते हो तुम, यह क्या कम है।
युग का हर संताप तुम्हें ढोना होगा
अँधियारे का हर कलंक धोना होगा
तम की छाती पर किरनें बिखराने में
अपना यह अस्तित्व तुम्हें खोना होगा
ज्योति लुटा कर मिट जाओ तो क्या गम है।
एकाकी जलते हो तुम, यह क्या कम है।
संघर्षित हो पली प्राण बाती कोमल
संचित करते रहे हृदय में स्नेह तरल
अब हँसते हो और कभी मुस्काते हो
रोम-रोम में लिए दहकता दावानल
उजली किरनों से भयभीत हुआ तम है।
एकाकी जलते हो तुम, यह क्या कम है।
-डॉ. सरिता शर्मा
16 अक्तूबर 2006
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