अनुभूति में
रोहित रूसिया की रचनाएँ-
नई रचनाओं में-
एक पंछी ढूँढता है
क्या कहें क्या ना कहें
जब भी लिखना जो भी लिखना
प्रेम में भीगे हुए कुछ फूल
सिकुड़ गई
क्यों
गीतों में-
अब नहीं आतीं
एक तिनके का सहारा
नदी की धार सी संवेदनाएँ
बाहर आलीशान
मेरा छूट गया गाँव
है कौन जो भीतर रहता है
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सिकुड़ गई क्यों
सिकुड़ गई क्यों धीरे – धीरे
आँगन वाली छाँव
वो आँगन का नीम
जो सबका रस्ता तकता था
भरे जेठ में हाँक लगाता
सबको दिखता था
क्यों गुमसुम
जो देता था
सबके हिस्से की छाँव
इक दरवाजा था जिस घर में
चार हुए दरवाजे
सबके अपने- अपने उत्सव
अपने बाजे - गाजे
आँगन को
सपनों में दिखते
नन्हें - नन्हें पाँव
धुआँ भरा कितना जहरीला
अब इस घर के अंदर
भीतर से बेहद बदसूरत
बाहर दिखते सुंदर
जबसे बूढ़ा
नीम सिधारा
सूना अपना गाँव
३ फरवरी २०१४
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