नदी की धार सी संवेदनाएँ
घट रही है
अब नदी की धार सी
संवेदनाएँ
पेड़ कब से
तक रहे पंछी घरों को लौट आएँ
और फिर अपनी उड़ानों की खबर
हमको सुनाएँ
अनकहे से
शब्द में फिर कर रही आगाह
क्या सारी दिशाएँ
हाट बस
आडम्बरों के दीखते जिस और जाएँ
रक्तरंजित हो चली है नेह की
सारी ऋचाएँ
रोक दो
जिस ओर से भी आ रही
जहरीली हवाएँ
२९ अक्तूबर २०१२
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