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एक पंछी ढूँढता है
एक पंछी ढूँढता है
फिर बसेरा
कल यहीं था आशियाना,
कह रहा था जल्दी आना
ढूँढता वो फिर रहा है,
अपना बचपन, घर पुराना
तोड़ा जिसने,
क्यों न उसका
मन झकोरा
अब न वो राते हैं अपनी,
अब न वो बातें हैं अपनी
हम ही थे खुदगर्ज़ हमने,
खुद ही लूटी दुनिया अपनी
क्या कहें
क्यों खो गया
अपना सवेरा
उसने तो जीवन दिया था,
साँसों में भी दम दिया था,
आसमाँ हो या ज़मी से,
दाम न उसने लिया था
हमने फिर
क्यों चुन लिया
खुद ही अँधेरा
३ फरवरी २०१४
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