अब नहीं आतीं
अब नहीं आतीं
किसी की चिट्ठियाँ
नेह में मनुहार में
जीत में या हार में
चुक गयी है
वेदना भी
वर्जना की धार में
स्वार्थ की सीलन ढकी
दिखती हैं मन की भित्तियाँ
अब नहीं आतीं
किसी की चिट्ठियाँ
आदमी बढ़ता गया
चढता गया चढ़ता गया
और समय की
होड़ में
खुद आवरण मढ़ता गया
भूल बैठा झर रही है
नीव की भी गिट्टियाँ
अब नहीं आतीं
किसी की चिट्ठियाँ
२९ अक्तूबर २०१२
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