अनुभूति में
जगदीश
पंकज
की रचनाएँ—
नये गीतों में-
उकेरो हवा में अक्षर
धूप आगे बढ़ गयी
पोंछ दिया मैलापन
मत कहो
हम टँगी कंदील के बुझते दियेअंजुमन में-
आज अपना दर्द
कुछ घटना कुछ क्षण
लो बोझ आसमान का
वक्त को कुछ और
शब्द जल जाएँगे
गीतों में-
कबूतर लौटकर नभ से
गीत है वह
टूटते
नक्षत्र सा जीवन
मुद्राएँ
बदल-बदलकर
सब कुछ
नकार दो
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मत कहो
मत कहो कोई कहाँ नंगा खड़ा है
कीजिये परिधान
की गुण-वंदना
शब्द का उपयोग अब जोखिम भरा है
इसलिए संकेत की भाषा सँभालो
अब शिलाओं पर नहीं केवल हवा में
अक्षरों की कुछ नयी तकनीक डालो
मत सतह की सलवटों को आँकिये
झाँकिए नीचे
कहाँ पानी घना
कब तलक निरपेक्षता के नाम पर
सार्थक प्रतिवाद से बचते रहोगे
बढ़ रहा है जिस तरह भाषा प्रदूषण
तो असहमति को भला कैसे कहोगे
तोड़कर विकलांग चिंतन की कसौटी
दीजिये अनुभूति को
स्वर चेतना
७ जुलाई २०१४ |