अनुभूति में
जगदीश
पंकज
की रचनाएँ—
नये गीतों में-
उकेरो हवा में अक्षर
धूप आगे बढ़ गयी
पोंछ दिया मैलापन
मत कहो
हम टँगी कंदील के बुझते दिये अंजुमन में-
आज अपना दर्द
कुछ घटना कुछ क्षण
लो बोझ आसमान का
वक्त को कुछ और
शब्द जल जाएँगे
गीतों में-
कबूतर लौटकर नभ से
गीत है वह
टूटते
नक्षत्र सा जीवन
मुद्राएँ
बदल-बदलकर
सब कुछ
नकार दो
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कबूतर लौटकर नभ
से
कबूतर लौटकर नभ से सहमकर
बुदबुदाते हैं
वहाँ पर भी किसी बारूद का
षड़यंत्र जारी है
हवा में भी
बिछाया जा रहा घातक सुरंगों को
धरा से व्योम तक पहुँचा रहे
कुछ लोग जंगों को
गगन में गंध फैली है किसी नाभिक रसायन की
धरा पर दीखती विद्ध्वंस की
व्यापक तय्यारी है
वहाँ पर शांति,
सह-अस्तित्व जैसे शब्द बौने हैं
यहाँ पर सभ्यता के हाथ
एटम के खिलौने हैं
वहाँ से पंचशीलों में लगा घुन साफ़ दिखता है
मिसाइल के बटन से जुड़ गयी
किस्मत हमारी है
शांति की आस्थाओं
को चलो व्यापक समर्थन दें
युद्ध से जल रही भू को
नया उद्दाम जीवन दें
किसी हिरोशिमा की फिर कहीं न राख बन जाये
युद्ध तो युद्ध केवल युद्ध है
विद्ध्वंसकारी है
१६ सितंबर २०१३ |