अनुभूति में
जगदीश
पंकज
की रचनाएँ—
नये गीतों में-
उकेरो हवा में अक्षर
धूप आगे बढ़ गयी
पोंछ दिया मैलापन
मत कहो
हम टँगी कंदील के बुझते दिये अंजुमन में-
आज अपना दर्द
कुछ घटना कुछ क्षण
लो बोझ आसमान का
वक्त को कुछ और
शब्द जल जाएँगे
गीतों में-
कबूतर लौटकर नभ से
गीत है वह
टूटते
नक्षत्र सा जीवन
मुद्राएँ
बदल-बदलकर
सब कुछ
नकार दो
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धूप आगे बढ़ गई
क्यों कंगूरों पर ठहरकर
धूप आगे बढ़ गयी
है कहाँ मध्यान्ह
संध्या देहरी पर चढ़ गयी
हर सुबह देखा तिमिर,
पीछे गया, आगे खड़ा है
आज बौनी सभ्यता का
आदमी कितना बड़ा है
नाप ही परछाइयों की
क्यों कहानी गढ़ गयी
हम विकल्पों में सदा
चिंतित रहे, आतुर रहे
और बस दो बूँद को
व्याकुल सभी अंकुर रहे
हर भविष्यत् की किरण
खाली हथेली पढ़ गयी
आज तो हर मोड़ पर
टकराव है या शोर है
क्या करे इन्सान, अपने
आप से ही चोर है
फटे पन्नों को मिलाकर
जिल्द जैसे मढ़ गयी
७ जुलाई २०१४ |