मैं वही साखी
मैं वही साखी
रचा जिसको कबीरा ने।
प्रेम के
विपरीत ही बहता रहा,
वर्जना-आलोचना
सहता रहा,
श्रेय ही गाया
सदा फक्कड़ फकीरा ने।
दोमुँहे रिश्ते
ज़हर के अंश हैं,
गले मिलते
विषधरों के वंश हैं,
पी रहा मैं विष
पिया जिसको कि मीरा ने।
रक्तरंजित मन
ह्रदय में टीस है,
अनय के आगे
झुक जो शीश है,
चेतना व्याकुल
मथा जिसको कि पीड़ा ने।
२६ जनवरी २००९ |