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कहाँ गए दिन
कहाँ गए दिन
वे सीले, छप्पर-छानी के !
रिसती छत
नीचे धरती पर
धरे भगोने,
टप-टप टपके
कच्चे घर में
बचे न कोने,
कहाँ गए दिन
वे गीले, झम-झम पानी के।
रात-रात भर
जाग-जाग
खटिया सरकाना,
छिन आँगन में
छिन में फिर
मढ़हे में आना,
कहाँ गए दिन
वे पानी की मनमानी के !
साग-पात के लाले
कैसे बने रसोई,
चूल्हा बुझा
और दीखे खाली बटलोई,
कहाँ गए दिन
वे भर मुट्ठी गुड़धानी के !
२२ अगस्त २०११
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