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घायल हुस्न की परछाईं

आसमान में उड़ती है,
सिर में वह पैदा है,
ख़ून में उबलती है,
दिल में धरकती है –

धारणा।
बीहड़,
उच्छृंखल।

उसे पकड़ रहा हूँ।
काग़ज़ पर लगा रहा हूँ,
रस्सी से बाँध रहा हूँ,
उसके पंख ज़रा काट रहा हूँ,
उसकी आकृति रेखा
मैं अब खींच रहा हूँ।

अचानक
लालित्य खो गया है।

घायल हुस्न की परछाईं ही
बाक़ी रही है।


२७ दिसंबर २०१०

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