मेंहंदी रंजित
पाँव धर मेंहदी रंजित
पाँव धर, कण कण कनक लुटाय,
धूप करे अठखेलियाँ, धरती गले लगाय।
नील गगन का आँगना, किरणें
खेलें खेल,
धूप सजाए अल्पना, छाँव काढ़ती बेल।
खोल झरोखा आ मिली, झिलमिल
करती धूप,
अंग-अंग केसर झरे, चन्दन भीगा रूप।
स्वागत अँगना बोलता, धूप
धरे जब पाँव,
कलियों में नवरंग हैं, सोने-सा घर गाँव।
कभी अटरिया आन चढ़, कभी
झूलती डाल,
अल्हड़ यौवन अंग में, हिरणी सी मद चाल।
चाँद की रानी चन्द्रिमा,
दिवस सोहती धूप,
जिसके मन में जो बसे, वो ही मन का भूप।
ना हँसती ना बोलती, ना
खिलता रंग रूप,
बादल ने क्या कह दिया, रूठ गई क्यों धूप।
पर्वत बैठी दो घड़ी, सूरज से
बतियाय,
बाँह पसारे ये धरा, तरूवर धीर बँधाय।
छाँव पूछती धूप से, मैं
शीतल तू आग,
हँसी धूप कह सुन सखी, अपने अपने भाग।
ताल तलैया ढूँढ़ते, ढूँढ़ें
पनघट कूप,
ना जाने कब आएगी, वह परदेसिन धूप
४ जनवरी २०१० |