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१- रिश्तों का व्याकरण
अनुकरण की
होड़ में अन्तःकरण चिकना घड़ा है
और रिश्तों का पुराना व्याकरण
बिखरा पड़ा है।
दब गया है
कैरियर के बोझ से मासूम बचपन
अर्थ-वैभव हो गया है सफलता का सहज मापन
सफलता के
शीर्ष पर जिसके पदों का हुआ वन्दन
देखिये किस-किस की गर्दन को
दबा कर वो खड़ा है।
और रिश्तों का पुराना व्याकरण
बिखरा पड़ा है।
शृंखलात्मक
नाटकों में समय अनुबंधित हुआ है
परिजनो से वार्ता-परिहास क्रम
खंडित हुआ है
है कुटिल
तलवार अंतर्जाल का माया जगत भी
प्रगति है यह या कि फिर विध्वंस
का खतरा बड़ा है।
और रिश्तों का पुराना व्याकरण
बिखरा पड़ा है।
नग्नता
नवसंस्कृति की भूमि में पहला चरण है
व्यक्तिगत स्वच्छ्न्दता ही प्रगतिधर्मी
आचरण है
नई संस्कृति के नये
अवदान भी दिखने लगे अब
आदमी अपनी हवस की दलदलों
में जा गड़ा है
और रिश्तों का पुराना व्याकरण
बिखरा पड़ा है।
--अमित
४-
जीवन मेरा बिखरा
पड़ा है
जोड़ दे आ के मुझे, जीवन मेरा
बिखरा पड़ा है।
शब्द बेतरतीब हैं, बिखरी हुई है भावना
कल्पना का साथ छूटा, और टूटी कामना
स्वप्न बिखरे, यादें बिखरीं, मन मेरा
बिखरा पड़ा है
जोड़ दे आ के मुझे, जीवन मेरा
बिखरा पड़ा है।
दोपहर की धूप बिखरी, शान्ति बिखरी रात की
छंद बिखरे प्रीति के, लाली है बिखरी प्रात की
एक ठोकर से तेरी, कन कन मेरा
बिखरा पड़ा है
जोड़ दे आ के मुझे, जीवन मेरा
बिखरा पड़ा है।
तन की है दीवार टूटी, और छूटी अर्चना
आत्मा तू ले गयी, कैसे करूँ मैं वन्दना
तोड़ कर जब से गयी तू, दिल मेरा
बिखरा पड़ा है
जोड़ दे आ के मुझे, जीवन मेरा
बिखरा पड़ा है।
साँस की है ड़ोर टूटी, और बिखरी आस भी
प्रेम की अनुभूति छूटी, झूठ सी ये जिंदगी
छोड़ कर जब से गयी तू, प्राण ये
बिखरा पड़ा है
जोड़ दे आ के मुझे, जीवन मेरा
बिखरा पड़ा है।
--धर्मेन्द्र कुमार सिंह `सज्जन'
कार्यशाला-४
५ सितंबर २००९
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२-
भर भुजाओं में भेंटो बिखरा पड़ा है, बने तो समेटो
अपना खड़ा,
भर भुजाओं में भेंटो
समय कह रहा है, खुशी से न फूलो
जमीं में जमा जड़, गगन पल में छू लो
उजाला दिखे तो तिमिर को न भूलो
नपना पड़ा, तो सचाई न मेटो
अपना खड़ा,
भर भुजाओं में भेंटो
सुविधा का पिंजरा, सुआ मन का बंदी
उसूलों की मंडी में छाई है मंदी
सियासत ने कर दी रवायत ही गंदी
सपना बड़ा, सच करो, मत लपेटो
अपना खड़ा,
भर भुजाओं में भेंटो
मिले दैव पथ में तो आँखें मिला लो
लिपट कीच में मन-कमल तो खिला लो
'सलिल' कोशिशों से बिगड़ता बना लो
सरहद पे सरकश न छोडो, चपेटो
अपना खड़ा,
भर भुजाओं में भेंटो
- संजीव सलिल
३-
कैसे बीनूँ
कैसे बीनूँ , कहाँ सहेजूँ
बाँध पिटारी किसको भेजूँ
मन क्यों इतना बिखरा पड़ा है?
खोल अटरिया काग बुलाऊँ
पूछूँ क्या संदेसा कोई?
बीच डगरिया नैन बिछाऊँ
पाहुन का अंदेसा कोई?
कैसे बंदनवार सजाऊँ
देहरी-आँगन बिखरा पड़ा है।
कोकिल गाए, आस बँधाए
भीनी पुरवा गले लगाए
किरणें छू कर अँग निखारें
रजनी गन्धा अलक बँधाए
कैसे सूनी माँग संवारूँ
कुँकुम-चन्दन बिखरा पड़ा है।
इक तो छाई रात घनेरी
दूजे बदरा बरस रहे
थर-थर काँपे देह की बाती
प्रहरी नयना तरस रहे
कैसे निंदिया आन समाए
पलकन अंजन बिखरा पड़ा है।
--शशि पाधा
५- टूट गया दिन
टूट गया दिन
बिखरा सब संध्या तक आते।
सूना आँगन फैली किरचें।
डरे बसेरा घुप्प अँधेरा।
हाथ लकीरें किसे दिखाएँ?
सिहरी देहरी चुभते हैं पिन।
टूट गया दिन
झीनी साड़ी खड़े दुशासन।
ठंडा चूल्हा चौका बासन।
छज्जे तक आ गई रूलाई।
कटती पाखें नहीं बताई।
साँसें चलतीं पल-पल को गिन।
टूट गया दिन
धुँधला धुँधला आर पार तक।
उलझ गए हैं चौराहों पर।
बिखरे रिश्ते बिखरे नाते।
बिखरे बिखरे से हैं तन मन।
कौन समेटे बैठा है जिन।
टूट गया दिन
-निर्मला जोशी |