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१-फूला मुँडेरे पर बुगनविला
फूला मुँडेरे पर बुगनविला
ओ पिया!
धूप घनी
धरती पर
अंबर पर छाया ज्वर
तपा खूब अँगनारा
विहगों ने भूले स्वर
लेकिन यह बेखबर
झूला मुंडेरे पर बुगनविला
ओ पिया!
जीना
बेहाल हुआ
काटे कंगना, बिछुआ
काम काज भाए नहीं
भाए मीठा सतुआ
लहराए मगर मुआ
हूला मुंडेरे पर बुगनविला
ओ पिया!
--पूर्णिमा वर्मन
३-जरा धूप फैली
जरा धूप फैली जो
चुभती कड़कती
हवा गर्म चलने लगी है ससरती
पिघलती-सी देखी
जो उजली ये वादी
परिंदों ने की है शहर में मुनादी
दरीचे खुले हैं सवेर-सवेरे
चिनारों पे आये
हैं पत्ते घनेरे
हँसी दूब देखो है कैसे किलकती
ये सूरज
जरा-सा
हुआ है घमंडी
कसकती हैं यादें पहन गर्म बंडी
उठी है तमन्ना जरा कुनमुनायी
खयालों में
आकर, जो तू मुस्कुरायी
ये दूरी हमारी लगे अब सिमटती
बगानों
में फैली
जो आमों की गुठली
सँभलते-सँभलते भी दोपहरी फिसली
दलानों में उड़ती है मिट्टी सुगंधी
सुबह से
थकी है पड़ी शाम औंधी
सितारों भरी रात आयी झिझकती
--गौतम राजरिशी
५- गर्मी के दिन
भोर जल्द भाग गई लू के डर से
साँझ भी निकली है बहुत देर में घर से
पछुआ के झोकों से बरसती अगिन
गर्मी के दिन।
हैण्डपम्प पर कौव्वा ठोंक रहा टोंट
कुत्ता भी नमी देख गया वहीं लोट
दुपहरिया बीत रही करके छिन-छिन
गर्मी के दिन।
बच्चों की छुट्टी है नानी घर तंग
ऊधम दिन भर, चलती आपस की जंग
दिन में दो पल सोना हो गया कठिन
गर्मी के दिन।
शादी बारातों का न्योता है रोज
कहीं बहूभोज हुआ कहीं प्रीतिभोज
पेट-जेब दोनों के आये दुर्दिन
गर्मी के दिन।
--अमित
७- गर्मी के मौसम में
गर्मी के
मौसम र्में
चिलचिलाती धूप यह
कितनी हो क्रुद्ध चली।
घूम रही गली-गली
छाँह के विरुद्ध पली।
अंतहीन
सड़कों में
पाँव जले
डामर में
हांफने लगा जीवन
साँसों के घेरों में।
सन्नाटा घोल गया
क्या-क्या इन प्राणों में।
गर्मी के
मौसम में
देखो वह सृजनहार
हाथों में छाले
आँखों में आस लिये
रहता भ्रम पाले।
पेट की
बुझी न आग
कैसी है
नियति हाय!
मुट्ठी भर छाया ना
भाग्यहीन कहाँ जाय?
धरती शृंगार गया
झर-झर पसीने में।
गर्मी के
मौसम र्में
-- निर्मला जोशी
९- उफ ये कैसे
उफ ये कैसे, गर्मी के दिन
सुबह की
शीतल भोर सुहानी
रातों की वो मधुर चाँदनी
शाम ढले गाँवों
में फैली
धूल-कणों की उड़ती लाली
गर्मी भर
न ये दिख पातीं
कटती रातें
तारों को गिन
उफ ये कैसे गर्मी के दिन
शीतल
छाया भाती सबको
दिन में धूप सताती सबको
जीव-जगत व्याकुल
हो जाता
तरस नहीं क्यों? आता रब को
श्रमिकों का
बाहर श्रम करना
हो जाता है
बड़ा कठिन
उफ ये कैसे गर्मी के दिन
आग
उगलता है सूरज जब
खो जाती है हरियाली सब
कूप-सरोवर के
जल-स्तर
दूर, न जाने हो जाते कब
वन-उपवन गर रहे उजड़ते
सब खुशियाँ
जायेंगी छिन
उफ ये कैसे गर्मी के दिन
--विजय तिवारी 'किसलय'
११- गर्मी के दिन
कुछ अलसाये
कुछ कुम्हलाये
आम्रगन्ध भीजे, बौराये
काटे ना
कटते ये पल छिन
निठुर बड़े हैं गर्मी के दिन
धूप-छाँव
अँगना में खेलें
कोमल कलियाँ पावक झेलें
उन्नींदी
अँखियां विहगों की
पात-पात में झपकी ले लें
रात बिताई
घड़ियां गिन-गिन
बीतें ना कुन्दन से ये दिन
मुर्झाया
धरती का आनन
झुलस गये वन उपवन कानन
क्षीण हुई
नदिया की धारा
लहर- लहर
में उठता क्रन्दन
कब लौटेगा बैरी सावन
अगन लगायें गर्मी के दिन।
सुलग- सुलग
अधरों से झरतीं
विरहन के गीतों की कड़ियाँ
तारों से पूछें दो नयना
रूठ गई
क्यों नींद की परियाँ
भरी दोपहरी
सिहरे तन-मन
विरहन की पीड़ा से ये दिन
--शशि पाधा |
२- अनचाहे पाहुन
अनचाहे पाहुन से
गर्मी के दिन।
व्याकुल मन घूम रहा-
बौराये-
बौराये
सन्नाटा पसरा है-
चौराहे
-चौराहे
चुभो रही धूप यहाँ,
तन मन में पिन।
गर्मी से अकुलाये,
गर्मी के दिन।
छाया को तरसे खुद,
जेठ की दुपहरी है।
हवा हुई सत्ता-सी,
गूँगी औ' बहरी है।
कैसे अब वक़्त कटे,
अपनों के बिन।
आख़िर क्यों आये ये,
गर्मी के दिन।
वोटों के सौदागर,
दूर हुए मंचों से।
जनता को मुक्ति मिली,
तथाकथित पंचों से।
आँखों में तैर रहे,
सपने अनगिन।
गंध नयी ले आये,
गर्मी के दिन।
--संजीव गौतम
४- गर्मी
की है बात निराली
गर्मी की
है बात निराली
दिन तपता पर रात सुहानी
जलता सूरज
आग लगाए
दावानल-सा खूब जलाए
कोई
कहीं बचे न बाकी
माँगे मिले कहीं
ना पानी
गर्मी की
है बात निराली
दिन तपता पर रात सुहानी
तप कर
ही तो कुन्दन बनता
तप से सबका रूप निखरता
झीलों में,
सागर में पानी
गर्मी नहीं तो सब
बेमानी
गर्मी की
है बात निराली
दिन तपता पर रात सुहानी
--अर्बुदा ओहरी
६- जाने क्या हो गया
जाने क्या हो गया, कि
सूरज इतना लाल हुआ।
प्यासी हवा हाँफती
फिर-फिर पानी खोज रही
सूखे कण्ठ-कोकिला, मीठी
बानी खोज रही
नीम द्वार का, छाया खोजे
पीपल गाछ तलाशे
नदी खोजती धार
कूल कब से बैठे हैं प्यासे
पानी-पानी रटे
रात-दिन, ऐसा ताल हुआ।
जाने क्या हो गया, कि
सूरज इतना लाल हुआ।।
सूने-सूने राह, हाट, वन
सब कुछ सूना-सूना
बढ़ता जाता और दिनो-दिन
तेज धूप का दूना
धरती व्याकुल, अम्बर व्याकुल
व्याकुल ताल-तलैया
पनघट, कुँआ, बावड़ी व्याकुल
व्याकुल बछड़ा-गैया
अब तो आस तुझी से बादल
क्यों कंगाल हुआ।
जाने क्या हो गया, कि
सूरज इतना लाल हुआ।।
--डॉ. जगदीश व्योम
८- पत्तों से पेड़ों के
पत्तों से पेड़ों के
आतीं छनकर किरणें
आग-सी बरसती है
मानव की बात दूर,
पौधे कुम्हलाते हैं।
चलती है गरम हवा
लू लगने के डर से
घर में छिप जाते हैं
धूप से पराजित हो
तड़प-तड़प जाते हैं
रुकने की आस लिए
बढते जाते पथिक
छाँव कहीं आगे है
जलते हैं पैर भले
चलते ही जाते हैं
नीम तले खटिया पर
सोने-सी दोपहरी
लेटकर बिताते हैं
चाँदी-सी रातों में
थककर सो जाते हैं
--हरि शर्मा
१०- फूल सेमल के
लो आई गर्मियाँ
बिछ गये हैं फूल,
सेमल के
लो आई गर्मियाँ।
सुर्ख, कोमल, लाल पंखुरियाँ
लिए रहती,
अनेकों तान छत वाली
बहुत ऊँची,
गगन छूती
डालियाँ
खिल उठी हैं
हो के मतवाली।
छा गई मैदान पर,
रक्तिम छटाएँ
चलो नंगे पाँव तो,
वे गुदगुदाएँ
खदबदाती-सी खड़ी
वे पीर लगती है,
खुशी के पल भरा-पूरा
नीड़ लगती हैं।
ग्रीष्म भर उड़ती रहेगीं रेशे-रेशे
जो कभी विचलित,
कभी प्रतिकूल लगती है।
बिछ गयें हैं शूल,
तन-मन के
लो आई गर्मियाँ।
बिछ गये हैं फूल,
सेमल के
लो आई गर्मियाँ।
--कमलेश कुमार दीवान
१२-याद करें हम
याद करें हम गर्मी के दिन
दुपहर सूनी
धूप की चादर
धरती व्याकुल प्यासा सागर
पुरवा संग पत्तों की झिन-झिन
याद करें हम गर्मी के दिन
घना कनेरा
गर्मी भूले
शाम चमेली आँगन झूले
सूने साँझ सकारे तुम बिन
याद करें हम गर्मी के दिन
खुशबू महके
धरती सारी
सुबह ओस की ठंडक प्यारी
ऋतु मनमोहक खुशियाँ अनगिन
याद करें हम गर्मी के दिन
--संध्या
६ जुलाई २००९
कार्यशाला-१ |