मै चली तो जग
चला मैं चली तो जग
चला, संग चली तक़दीर
बहती नदिया कह गई, रुकूँ तो गंदला नीर।
मन में द्वेष न पालिए, मन
ही मैला होय
गुर मिश्री जग बाँटिए, हाथ भी मीठा होय।
अन्तर्मन में झाँकिए, खुद
की कर पहचान
धुँधले दर्पण में दिखे, सूरत इक अनजान।
रंग मंच यह लोक है, बहुरंगी
हैं लोग
प्रेम रंग जो जान ले, कोई न लागे रोग।
अधजल गगरी ले चली, गोरी
अपने गाँव
न प्यासे की प्यास बुझी, व्यर्थ थकाए पाँव।
परमारथ के काज में, गिनो
नहीं दो चार
कण-कण धरती सींचने, बहती नदिया धार।
तन का कैदी मन रहे, मन का
कैदी मोह
पिंजरा खोल के देखिए, छूटे राग विछोह।
धन से झोली क्यों भरे, धन
चिंता जंजाल
पंछी चोंच न भर सके, भरे तलैया ताल।
यह जग फूलों से भरा, नभ में
हैं सत रंग
चुन लो तो डलिया भरे, खुशबू भीगे अंग।
२८ सितंबर २००९ |