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अनुभूति में मानोशी चैटर्जी की रचनाएँ-

नए गीतों में-
पतझड़ की पगलाई धूप
बदले नयन
शीत का आँचल
शेष समय 

अंजुमन में—
अपनी निशानी दे गया
कोई तो होता
लाख चाहें
ये जहाँ मेरा नहीं है
हज़ार किस्से सुना रहे हो

गीतों में

होली गीत 

कविताओं में—
आज कुछ माँगती हूँ प्रिय
एक उड़ता ख़याल–दो रचनाएँ
कुछ जीर्ण क्षण
चलो
चुनना
ताकत
पुरानी बातें
मेरा साया
लौ और परवाना
स्वीकृति

संकलन में—
दिये जलाओ- फिर दिवाली है
होली है- गुजरता है वसंत
फागुन के रंग- मौसमी हाइकु

 

एक उड़ता खयाल- दो रचनाएँ

एक

आज से पहले
एक पत्ता भी उड़ता न था
किसी आँधी के झोंके से
आज एक छोटे से हवा ने
कहीं से लाकर मुझे
दे दिया एक ख़याल
यूँ खोया रहा मेरा मन
जाने कैसे इतने दिनों बाद
खारे पानी के इस सैलाब में
उमड़ कर डूबता रहा
डूब कर उभरता रहा।
कितने उलझे हुए सवाल
और उनके उलझे हुए जवाबों को
कर लिया अपने नाम
मेरे सारे ख़यालों ने
दस्तख़त कर दिये
कुछ कोरे काग़ज़ पर
फिर मन उदास है
और हर ख़याल रो रहा
चीख चीख कर
मैं चुप बैठी देख रही हूँ
अपने आँखों से ये खेल
बेबस पूरी तरह
मेरे बस मे नहीं कुछ
इस ख़याल ने हरा दिया मुझे।

दो

उलझ गया
अधूरा सा खयाल
तंग गली में
पास की दीवार से
कानाफूसी कर
अचानक शोर बन फिर
गली में छोटे बच्चे
सा दौड़ कर भागा
ओह! ये ख़याल भी।
बिना किसी लगाम के
कभी भी कहीं भी
भागता फिरता है
आसमान से लटक कर
कभी हवा में उछल कर
इतराता है, झूमता है,
अपनी ही बेख़याली में
इधर उधर घूमता है,
मगर ज़मीं से दुश्मनी है
ज़मीन पर पांव जलते हैं इसके
शाख पे बैठा आज भी
मुझ से लड़ रहा
इस ख़याल ने सच हरा दिया मुझे।

१ सितंबर २००६

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