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वर्ष दो हजार दस
जाते हुए साल से एक पठार माँग लिया
है उधार में
पठार होंगें
तो प्रार्थनाएँ भी रहेंगी
कहा है छोड़ जाए
आँसू की दो बूँदें भी
जो चिपकी रह गईं थीं
एक पुरानी बिंदी के छोर पर
कुछ इतिहासी पत्ते भी चाहिए मुझे अपने पास
वो सूखे हुए से
शादी की साड़ी के साथ पड़े
सूख कर भी भीगे से
वो पुराना फोन भी
जो बरसों बाद भी डायल करता है
सिर्फ तुम्हारा ही नंबर
हाँ, वो तकिया भी छोड़ देना पास ही कहीं
कुछ साँसों की छुअन है उसमें अब भी
इसके बाद जाना जब तुम
तो आना मत याद
न फड़फड़ाना किसी कोने पर पड़े हुए
कि इतने समंदरों, दरख्तों, रेगिस्तानों, पहाड़ों के बीच
सूरज की रौशनी को आंचल में भर-भर लेने के लिए
नाकाफी होता है
कोई भी साल
कविताएँ बहती गईं
साथ-साथ
बेशर्त
पठारों के बीच, झरनों के दरम्यान
१७ जनवरी २०११ |