झोंका जो आया अतीत की खिड़की से
अनार के दाने ही थे
वो पल
गिलहरी की तरह गुदगुदाते आए
फिर बह गए
वो शहतूत की बेरियाँ
कच्चे आमों की नटखट अटखेलियाँ
आसमान के जितने टुकड़े दिखते
अपनेपन से भरे लगते
घर का फाटक और
फाटक के पास से गुजरते लोग
उनके चेहरे के भाव
जो घर आते, वो भी भले लगते
न आने वाले भी किसी सुख के साये में जीते ही लगते
असल में तब परिभाषा शायद सुख की ही थी
कहाँ जाना कौन थे बुद्धा, राम या रहीम
किसी का फलसफा पढ़ा ही कहाँ था
लेकिन मन में शांति की चादर ऐसी लंबी थी
कि तमाम सरहदें पार कर लेती
उन गुनगुने दिनों में रिश्ते जितने थे
अपने थे
शहरों –गाँवों-कस्बों की सीमाओं से परे
वो शहतूत अब दिखते नहीं
रिक्शे की ऊबड़-खाबर सवारी
कचनार के खिले से रंग
पेट में उठती उल्लास की हूक
हर शब्द से झरता प्यार
सब कुछ इतिहास क्या इतनी जल्दी हो जाता है?
७ जून २०१० |