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सच
हादसे– (मुंबई और मंगलौर के बीच मन) |
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हादसे–
(मुंबई और मंगलौर के बीच मन)
हादसे एक ही बात कहते हैं
मंगलौर में हो या मुंबई में
इंसान के रचे हों
या कुदरत से भुगते
कि साँसों का कोई भरोसा नहीं
सबसे अनजानी, अपरिचित साँसें ही हैं
कभी भी, कहीं भी फिसल सकती हैं
अनुलोम-विलोम के बीच
जब रोकती हूं
साँसों को कुछ पलों के लिए अंदर ही
तो लगता है कई बार
कि जाने ये साँसें
अंदर शऱीर में कर रही होंगीं क्या गुफ्तगू
क्या बताती होंगी
दिल को
दिमाग को
पेट को
अँतड़ियों को
कि कब छूटने वाली है
साँसों की गठरी
इन साँसों का क्या भरोसा
हो सकता है
जाने की तैयारी का
एक पल भी न दें
अब इन साँसों से मोह भी नहीं होता
दिखती है हर रोज मौत
कितनी-कितनी बार
इनसे दिल करता है
अब खेलूँ
पिट्ठूगरम
टेनिस की गेंद की तरह उठाऊँ
उछाल दूँ आसमान पर
लिख कर अपना पता
हादसे हर बार खुद अपने करीब ले जाते हैं
रूला जाते हैं
किसी और के हिस्से के आँसू
जब बहते हैं
अपनी आंखों से
तो मन की कितनी परतें जानो कैसे खुल-खुल जाती हैं
कितने दिन रहता है मन मुरझाया सा
हादसे रेतीली जमीन को
और पथरा जाते हैं
मौत से मिला जाते हैं गले
भरोसा नहीं अगले पल का
तब भी इतने सामान का ढोना
मौत के रूदन के सामने
इससे बड़ा हास्य भला और क्या होगा
७ जून २०१० |