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वर्ष दो हजार दस
वो बत्ती वो रातें
संवाद
सच
हादसे– (मुंबई और मंगलौर के बीच मन)

 

नव वर्ष में

चलो एक कोशिश फिर से करें
घरौंदे को सजाने की
मैं फिर से चोंच में लाऊंगी तिनके
तुम फिर से उन्हें रखना सोच-विचार कर

तुम फिर से पढ़ना मेरी कविता
और ढूंढना अपना अक्स उसमें

मैं फिर से बनाऊँगी वही दाल, वही भात
तुम ढूँढना उसमें मेरी उछलती-मचलती सरगम

मैं फिर से ऊन के गोले लेकर बैठूँगी
फंदों से बनाऊँगी फिर एक कवच
तुम तलाशना उसमें मेरी साँसों के उतार-चढ़ाव

आज की सुबह ये कैसे आई
इतनी खुशहाल
कुछ सुबहें ऐसी ही होती हैं
जो मंदिर की घंटियां झनझना जाती हैं

लेकिन रात का सन्नाटा
फिर क्यों साफ कर जाता है उस महकती स्लेट को

चलो, छोड़ो न
छोड़ो ये सब
चलो, किसी पहाड़ी के एक सिरे पर दुबक कर
फिर से सपनों को मुट्ठी में भर लें
चूम लें पास से गुजरते किसी खरगोश को
सरकती हवा को
गुजरते पल को

चलो, एक कोशिश और करें
एक बार और

१७ जनवरी २०११

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