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संवाद
सच
हादसे– (मुंबई और मंगलौर के बीच मन) |
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एक
ख्वाब की कब्रगाह
लो मर गई मरजानी
तब भी चैन नहीं
देह से झाँक कर देख रही है तमाशा
कुनबुना रहे हैं पति
बेवजह छूट गया दफ्तर सोमवार के दिन ही
बच्चों की छटपटाहट
काश मरतीं कल शाम ही
नहीं करनी पड़ती तैयारी टेस्ट की
अब कौन लाए फूलों की माला इस तपती धूप में
नई चादर
कौन करे फोन
कि आओ मरजानी पड़ी है यहाँ
देख जाओ जाने से पहले कि
तुम्हें पता लगेगा नहीं
वो मरी कि मारी गई
मरजानी जानती है
नौकरानी को नहीं मिल रहा
हल्दी का पैकेट
पति को अपनी बनियान
बेटे को अपनी छिपाई सीडी
कैसे बताए मरजानी
अलमारी के किन कोनों में
सरकी पड़ी हैं चीजें
मरजानी तो अभी है
पुराने कफन में
कि मौत से पहले
गर तैयार कर लिया होता बाकी का सामान भी खुद ही
तो न होता किसी का सोमवार बेकार
कौन जाने
आसान नहीं होता मरजानी होना
चुपके से मरना
हौले-हौले मरना
दब-दब कर मरना
और मरना
ये मरना सोमवार को कहाँ हुआ
मरना तो कब से रोज होता रहा
मरजानी को खबर थी
घर की दीवारों को
रंगों को
चिटकनियों को
बर्तनों को
गीले तकियों को
बस उसे ही खबर नहीं थी
जिसका हो गया सोमवार बेकार
७ जून २०१० |