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साँझ
मदमाते हिलकारों
पर स्मृतियों-सी
उतराती है
दो आँखें किसी की
कहीं टुकुर-टुकुर
जोडती हैं बाट
गीत घोलता है
प्रेम का, बिछोह का
चरवाहा
मंदिर में
गूँजती है
घंटों की निनाद
टेका होगा
किसी ने
माथा जरूर
आडी-तिरछी
गोल-मोल
कतारें बाँध
फिरती हैं बलाकाएँ
समय का प्रहरी
समेटता है
परछाई की जाल
सब लौट जाएँगे
तुम्हारे आने तक
साँझ
उफनते समुद्र के
निर्जन तट पर
रहूँगा किंतु मैं
प्रतीक्षारत, एकाकी
उस विस्मित क्षण को
संजोने के लिए।
१ अप्रैल २००४
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