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पार :
बार-बार
अनजान देश
अनजान क्षितिज
अनजान लोग
कब, कैसे, किन-किन
राहों से होकर
कौन कहाँ ले आता
है मुझे
जब-जब लेकिन
आगे बढकर
शीश नवाकर
बांहें फैलायी
तब-तब नि:संकोच
सबने अपनाया है मुझे
पर हर बार
बिना अपवाद के
एक बेजान सूनी रात में
मेरी नसें सुन्न हो
जाती हैं
यह सोचकर कि
कल दूर क्षितिज पर
डूबते पीले सूरज से
मिलने का वादा
हमीं तोड देंगे
दर्द को समेटे
बढ जाएँगे
चल निकलेंगे
दूर, पार।
१ अप्रैल २००४
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