मौत और ज़िन्दगी
१
रेत की लहरों पर बिछी
काली रात है ज़िन्दगी
मौत है
लहराता समुन्दर
समुन्दर के सीने पर
तैरती लम्बी डोंगी है ज़िन्दगी
मौत है
फफोलों से रिसती समुन्दर की यादें
यादों की ज़मीन पर
उगी घास पतवार है ज़िन्दगी
मौत है
हरियाली की भूरी जडें
चाहे कितनी भी लम्बी हो
मौत की परछाई है ज़िन्दगी
२
वह खिलती है
दरख्त की शाखाओं पर
गुडहल के फूल सी
नुकीले दाँतों और पंजों को पसार
आमंत्रित करती है
काम मोहित मकड़े को
मकड़ा जानता है
भोग उसका नहीं
फिर भी आनन्दित है
मकड़ी देह पर
जो कसती है पंजे
ज़िन्दगी के मकड़े पर
वह भागता है छटपटाता हुआ
फिर लौट आता है अंध मोहित
अन्तत मौत निगल लेती है
घायल ज़िन्दगी को
आरंभ होती है सर्जन किया
मौत की आनन्द के जालों पर
फिर से जनमने लगती है
|