अनुभूति में परमेश्वर
फुँकवाल
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विस्तार
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विस्तार
शहर चला आया है
बीजों के मन में बसी
संभावनाओं की धरा तक
अपने सपनों की खोज में
कुछ विले
हरी घास का मैदान
सरसराती गाड़ियाँ
मुट्ठी भर एकांत
अब उग आयेगा
सरसों की जगह
इस गाँव में
युगों से जिनने
सींची थी उसकी छाती
वह मुँह अँधेरे
चले जायेंगे
कंकरीट के कसैले
जंगलों में
पीढ़ियों के लिए
जीवन से प्यास माँगने
वह चले तो जायेंगे
पर छोड़ जायेंगे यहीं
बिखरी हुई
अपने सपनों की पोटली
विलाओं के बीच
गोल्फ के मैदान की
गहरी हरी
बारीक कटी दूब
कभी पहचान नहीं पायेगी
अपनी जड़ों में
उनके भग्न स्वप्नों की नमी
कुछ आँखें कुछ हाथ
लौट आएँगे
समय चक्र में लूटे पिटे मोहरे बनकर
अपनी ही जमीन पर
अपने ही आसमान का बोझा ढोने
विरासत में मिले विस्तार को जीने
२८ जनवरी २०१३ |