अनुभूति में परमेश्वर
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बेटी की साइकिल
उसे देखकर
बेटी की आँखों में जो चमक आई थी
वह आज भी याद है
वह चमचमाती साइकिल देख रही थी और मैं उसकी आँखें
कितने ही दिन वह
उस पर बैठकर स्कूल गई
कितनी बार बड़े जतन से उस पर जमी गर्त हटाई
उसकी दुखती रगों में स्नेहक उड़ेला
फिर एक दिन
मेरा तबादला हुआ
बेटी बड़ी हो गई
बड़े शहर में स्कूल के लिए बस ही एक उपाय था
गैरेज तब चौबीस घंटे साइकिल का जीवन हो गया
कम्पाउंड की सफाई करते हुए
एक दिन उसे सुखिया ने देखा
धूल से लथपथ और प्राणवायु विहीन
उसकी आँखों में एक चमक आई और लोप हुई
हिम्मत कर उसने पूछा
मेमसाब इसे मुझे बेचेंगे
चाय का कप मेज पर रखते हुए
कविता ने पूछा
क्या तुम्हारी कोई बेटी है
दो हैं उसने कुछ अपराध भाव से कहा
यह नुपुर की पहली साइकिल है
इसे मैं बेचूँगी नहीं
तुम इसे अपनी बेटियों के लिए ले जाओ
नुपुर एक बार उसे देखने बाहर आई
साइकिल की धूल हटाते सुखिया की आँखों में उसने
पता नहीं क्या देखा
पर मुझे उसकी आँखों में वही चमक दिखी
जो वर्षों पहले
इस साइकिल पाकर आई थी
१ अप्रैल
२०१६ |