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आरंभ

जब सब कुछ गड्ड मड्ड था
एक कृष्ण पिंड में
तब क्या रहा होगा

समय शुरू नहीं हुआ होगा
और खोज रहा होगा
ईंधन
एक अनंत यात्रा के लिए

सुप्त पडी होंगी
अनंत आकाश गंगाएँ
और बंदी रहे होंगे काल कोठरी
के गुरुत्व में
ब्रह्माण्ड के सारे पिंड
निस्सीम ऊब के नैराश्य के बीच

उस अदृश्य में
तब एक स्वप्न ही रहा होगा
प्रेम की असीम उर्जा में लिपटा
जिसने तोड़ी होगी
समय की बेड़ियाँ
और पार की होगी
निस्सारता की उफनती नदी
और मुक्त होकर भी
अनेकों सूर्य, चंद्र, आकाशगंगाएँ
रम गए होंगे एक अनंत रास वृत्त में
प्रेम की डोर में बंधे

स्वप्न और प्रेम ही रहे होंगे
जब सृष्टि जाग उठी होगी
और काल थम गया होगा
उनके रूप जाल में उलझकर

२८ जनवरी २०१३

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