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उद्भव

सहस्त्रों वर्षों
मैं गुम रहा
धरती, आकाश
और अंतहीन वनों की आत्मा में
सूर्य के तपते उजास में
घनघोर बारिश में
सर्दी की ठहरी रात में

बातें करता रहा
अनगिनत आवाजों से
तितलियों से
चिड़ियों से
सारे ब्रम्हांड से
और मौत की तरह सामने खड़े सच से
निमग्न, निर्वसन, निरामय

फिर मुझे मिला
पाषाण में लिपटा धातु का एक कण
दो चकमक पत्थर
कुछ वृक्षों की छाल
और एक गुफा
फिर मैंने चखा दीवारों और दरवाज़ों
के पीछे की निश्चिन्तता का स्वाद
और पाया वस्तुओं को
इस्तेमाल करने का हुनर

फिर मैं अकेला हो गया
सृष्टियों के लिए
अगले प्रलय तक

२८ जनवरी २०१३

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