सुख
आँगन में खड़ा है मौन
अरे! देखो तो...
उसकी उँगली पकड़कर
आया हुआ दर्द
कराहता है लाचार बनकर...
दरवाज़े पे दस्तक दे रहे
मौन को देखकर
धड़कन चूका मेरा यह दिल
कराहते हुए दर्द को देखकर
याद दिलाता है...
थोड़ा-सा कार्य करने की ललक
और उसी में से मिला
अमूल्य नाम और शोहरत...
फिर उस शिखऱ पर जा बैठा
अर्थदग्ध अहंकार...
मैं थम जाता हूँ, खोजता हूँ
खुद मुझमें से ही छूटे हुए
उस मौन को...
उसी दर्द को...
जिसे मैंने कुछ पलों के लिए
प्रगति या प्रसिद्धि के नाम पर
गिरवे रखकर पाया था आभासी
सुख...!!!
१३ अक्तूबर २००८