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निःशब्द

ज़िंदगी की तेज़तर्रार रफ़्तार में
लोगों की भीड़ में दौड़ता रहता हूँ हरदम
शानो-शौक़त है,
भीड़ रहती है आँगन में
तुलसी का पौधा है और आँगन में ही गुलाब...

लोग आते हैं
ठहाके लगाते हैं, कुछ है आस लिए
पता नहीं, घर है या मयख़ाना मेरा
नशे में धुत्त रहता हूँ, किसी विचार पे

शब्द है और निःशब्द कुछ पल मेरे
बेफ़िक्र हूँ, बदनाम भी-
धुआँ उठता है, वक्त ठहरता है
कुछ लम्हे ऐसे भी है, जो देता है सुकून उन ज़ख़्मों को
जो भरकर भी
उमड़ते हैं बारबार सैलाब बनकर

निंद उड़ जाती है
ओस बन जाते हैं अश्क...

कुछ लोग हैं
मेरे बेचैन दिल को,
ज़ख़्मों को,
ज़हन में भरे उस बारूद को
भाँपने का करते हैं दावा
मगर, उन्हें भी डर है
चले जाते हैं वो भी
इसी आँगन से शब्द लेकर,
निःशब्द होकर
जहाँ तुलसी का पौधा है और गुलाब का फूल भी...!!!

१३ अक्तूबर २००८

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