प्रकृति
संभावनाएँ है
जहाँ संघर्ष भी वहीं है
आकांक्षाओं की टकराहट और
असंयमित अदावत भी वहीं है
विरूपित भावनाएँ घात-प्रतिघात व
आगे निकलने की होड़ वहीं है
गहरी चाल अभिशाप व अतृप्ति वहीं है
फिर निराशा हताशा और संताप वहीं है
जहाँ रिक्त है वहाँ सब तृप्त है.
यही प्रकृति है
सो हे मनीष तू मुझे रिक्त कर
और इस तरह मुझे तृप्त कर
क्योंकि नहीं डूबना चाहता मैं
महत्वाकांक्षाओं के महासागर में
नहीं भटकना चाहता मैं
संभावनाओं के शहर में
तू मुझे रिक्त कर।
८ दिसंबर २०१४
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