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अनगढ़ कविता
मैं तो सदा
लिखता रहा सिर्फ तुम्हारी खातिर
ताकी तुम पढ़ सको मुझे
ढूँढ सको कोई रौशन जगह
मेरे मन के अँधेरे कोने में
दे सको आकार
मेरी अनगढ़ कविताओं को
सीच सको, अपने नम होठों से
मेरे निर्जन, बेजान पड़े जीवन को
सिखा सको मुझे जीना
रंग भरना जीवन में
मैं तो सदा लिखते रहा
ताकि देख सकूँ
तुम्हारी आँखों में चमक, लबों पर हँसी
सुन सकूँ तुम्हारी जुबाँ से
"पगले हो तुम बिल्कुल"
जान सकूँ तुम्हारी वो चाहत
कि फ्रेम करा कर रख लेना चाहती हो
मेरे हर शब्द को, मेरी लेखनी को
मेरे शब्दों ने ही तोड़ दिये सीसे सब फ्रेम के
शब्द के इस दोगले चारित्र को
समझा ही नहीं
इसलिये आज भी लिखे जा रहा हूँ।
१५ जनवरी २०१६
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