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माँ भी झूठ बोलती है
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माँ भी झूठ बोलती है

माँ भी झूठ बोलती है
कभी अपने बच्चे की खुशी के लिये
उसकी तारीफ करती
कभी किसी गैर से अपने बच्चे के बारे में
कुछ अच्छा कहती
अपनी तसल्ली के लिये झूठ बोल जाती है माँएँ

अपने बच्चे की उम्र को काम-ज्यादा करती
दूसरों के बच्चे से तुलना करती
अपने बच्चे को मेहनती कर्मठ और
नेक-दिल साबित करती
उसकी गलतियों को छुपाती
अभी तो उम्र ही क्या है? कह
झूठ बोल जाती है माँएँ

रोज-रोज की जिंदगी में
झूठ क्या और सच क्या
वगैर इसका परवाह किये
बिल्कुल निर्मेष भाव से झूठ बोल जाती है माँएँ
कभी अपनी झूठ पकड़े जाने पर
लोगों के सामने
कुछ शर्मिंदा सी कुछ झेंपी सी
कुछ खुद को सीधी सी दिखाने के प्रयास में
अक्सर झूठ बोल जाती है माँएँ

कभी ऐसी स्थिति में
अपने बच्चों के सामने अपने पति के सामने
आँसू की दो-चार बूँद टपका कर
मामला को रफा-दफा करती
इस माँ के आँखों को देखा है कभी?
इन आँखों में बचपन से जवानी तक
और जवानी से बुढापे तक
ना जाने कितने मंजर छुपे हुए है
कितनी आशा-निराशा तृप्ति-अतृप्ति
अधूरी अभिलाषाएँ अधूरे सपनों
और अध-जागी रातों से
आँखों के चारो ओर पड़े काले घेरे को
छुपाती मुस्कुरा भी देती है माँएँ

८ दिसंबर २०१४

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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