अनुभूति में कमलेश
भट्ट कमल की रचनाएँ—
नई रचनाओं में—
उम्र आधी हो चली है
ऐसा लगता है
क्या हुआ
मुकद्दर
उसके जैसा
अंजुमन में—
झुलसता देखकर
न इसकी थाह है
नदी
नसीबों पर नहीं चलते
ना उम्मीदी में
पेड़ कटे तो
वहाँ पर
समंदर
हज़ारों बार गिरना है
हमारे ख्वाब की दुनिया
दोहों में—
छे दोहे
हाइकु में—
आठ हाइकु
होली हाइकु
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झुलसता देख कर
झुलसता देखकर पौधों को वो डर तो नहीं
जाते
कड़ी गर्मी से जलकर पेड़ खुद मर तो नहीं जाते।
कहीं दाना दिखाई दे नहीं मुमकिन है ये लेकिन
हताशा में परिन्दे लौटकर घर तो नहीं जाते।
जिसे मिलना हो उनके पास वो खुद ही चला जाए
कभी पर्वत किसी के पास चलकर तो नहीं जाते।
पसीने की ही इक-इक बूँद से वर्षों में भरते हैं
सरोवर भाग्य के खैरात से भर तो नहीं जाते।
भले फौलाद की दीवार में महफूज़ हो जाएँ
हमारे जीन्स में बैठे हुए डर तो नहीं जाते।
समझ पाते अगर नीची छतों की साज़िशें पहले
कई कद्दावरों के कम से कम सर तो नहीं जाते।
कई हैं और भी जो विष का कारोबार करते हैं
हवाओं में ज़हर लेकर के विषधर तो नहीं जो।
१ मई २००५
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