ज़िन्दगी़ है यही
गुनगुनाती हुई
वक्त के पुष्प की
पंखुड़ी बह गई
एक चट्टान मज़बूत-सी
शांत है
तीव आघात है
दर्द गहरा हुआ
वीथिका सुनसान
इस नदी का जल
जल नहीं अश्रु हैं
तट के श्मशान पर
धुंध को चीरती
वह ध्वनि
तीव्र-सी
कर्णभेद बनी
रोशनी हो गई
चौंधियाए मगर
कुछ डगर के पथिक
आँख का दोष है
भोर थी बस अभी
एक झपकी पलक
साझ ये बन गई
ज़िन्दगी है यही
जो बहे रात भर
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