नहीं बयान कर सके...
नहीं बयान कर सके जो दास्ताँ गुज़र गई
अभी इधर थी रोशनी न जाने अब किधर गई।
ये चाहते रहे कि थोड़ी छाँव राह में मिले
हमें ज़रा-सी ज़िन्दगी तो उस पनाह में मिले
जिसकी खोज में भटक रहे हैं इक सवाल से
बन गए हैं आईने के सामने मिसाल से
मगर हमारे रास्तों पे गुल कभी न खिल सके
थे ख़्वाब में तो साथ न हकीकतों में मिल सके
धुएँ सी बनके उड़ गईं ये मुस्कराहटें यहाँ
न उनके घुंघरुओं की कभी आई आहटें यहाँ
उदास दर्द साथ हाथ की लकीर में दिखे
रहे बाज़ार में मगर कहीं कभी भी न बिके
वो उड़ गए चमन से किसी तेज़ बाज की तरह
न फिर दिखे वो लम्हें अपनी दूर तक नज़र गई।
नहीं बयान कर सके जो दास्ताँ गुज़र गई
अभी इधर थी रोशनी न जाने अब किधर गई।
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