अनुभूति में
डा. सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक' की
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ओस्लो की सड़क
पर, भीख माँगता दर-दर
बर्फ़ीला मौसम, विहँसते गुलाब
सड़क पर पर्यावरण देवी
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कविता
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बरखा के आने पर
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कविताएँ
गुच्छे भर अमलतास- दिन में पूनम का चाँद
तुम्हें नमन- युग पुरुष गांधी से
धूप के पांव- यह वह सूरज नहीं
मेरा भारत- धन्य भारतीय संस्कृति
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आई बरखा बहार
वसंती हवा- आकुल वसंत
शुभकामनाएँ- जीवन में बहुरंग
नया साल - स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा
ज्योति पर्व- दीप जलाना
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ओस्लो की सड़क पर, भीख माँगता दर-दर
ओस्लो की सड़क पर
भीख माँगता दर-दर।
नशे में धुत हकलाता स्वर।
हार दू स्मो पेंगेर?
(तुम्हारे पास छोटे सिक्के हैं?)
फेम्मेर एल्लेर थीएर!
(पाँच या दस क्रोन्र का सिक्का)
कुछ अनसुने, कुछ अनकहे चले जाते
कुछ घूरते, नज़र फेरकर
आँखों में बुझे दीपक की लौ
फैलाए अपने पर
भीख माँगता दर-दर।
सर्द हवाओं को चीरता
मन मे अधीरता
बरफ़ को पाँव से ढकेलता
मुँह नाक से निकालता वाष्प-सा धुआँ
नाक पोंछती बाहें
जीवन बन खाई और कुआँ
गिरने से बेखबर
निर्भय, निडर
ज़िन्दगी लिए हथेली पर,
वह भीख माँगता दर-दर।
भीख ही तो माँगते
चोरी तो नहीं करते,
डाका तो नहीं डालते।
कोई मजबूरी रही होगी,
तब बने होंगे
नशे के आदी।
लोगों की नज़रें
नि:शब्द कह जाती हैं
- मत दो भीख
शमाज के कलंक हैं
मदिरा पिएँगे, नशा करेंगे
अपने को और डुबाएँगे।
अपने को मार रहे हैं
कैसी सजा काट रहे हैं?
हाथ में बोतल या नशे की पुड़िया
सबसे धनी देश में
ये भीख क्यों माँग रहे हैं
कैसी सज़ा काट रहे हैं?
निवेदन से दूर
स्वरों में माँग,
झूमते, घूमते मजबूर
मन में विश्वास
नहीं पश्चाताप।
आहत मन में अनेक घाव लिए
राह देखता
कोई मरहम लगाए आगे बढ़कर
बाहों में भरे कसकर
स्नेह को तरसता
सहानुभूति खोजता
विश्रामगृहों की छतों को छोड़कर
आ गया
ओस्लो की सड़क पर
भीख माँगता दर-दर।।
३ अगस्त २००९ |