युग पुरुष गांधी से
तुम भारत के शिखर पुरुष
थे जग के तुम शांतिदूत
जहाँ कहीं था अंधकार
जल उठे अनेकों विश्वपूत
पूर्णिमा रात की शीत लहर
तब लाखों भक्त नहाते हैं
माथे-तिलक लगा भक्तगण-
भजन शांति के गाते हैं
कोई तलवार उठाए तो
वहाँ मौन रहा न जाता है
बापू आतंकी दुश्मन का
यहाँ जुर्म सहा न जाता है
तुम भी सदा कहा करते
अन्याय कभी न सहना तुम
मर-मर कर क्या जीना है
सम्मान मनुज का आभूषण
वे हाहाकार मचाते हैं
अब आतंकी कहर ढाते हैं
बेमतलब रोज़ धरा पर फिर
वे मानव रक्त बहाते हैं
जिस कश्मीर की घाटी में
दानव छिप-छिप आते हैं
पूजा-अजान कर रहे मनु
को ज़िंदा यहाँ जलाते हैं
यह कैसा है धर्म धरा पर
दानवता आज सिखाता है
दूजे धर्मों के लोगों से
घृणा-दुश्मनी निभाता है
अब रहा नहीं जाता बापू
हम भी अब अस्त्र उठाएँगे
आतंकवाद को दुनिया से
हम जड़ से सदा मिटाएँगे
गुरु गोविंद, रानी, राणा
का जोश पुराना लाएँगे
सोने की चिड़िया भारत को
फिर से स्वर्ग बनाएँगे।
सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'
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