अनुभूति में
डा. सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक' की
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ज्योति पर्व- दीप जलाना
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मेरे सगे स्नेही लगते
आंखों में आंसू बन बरसे
मन-आंचल में उन्हें छिपाए
देख रही हूं सपने
समय सुनहरा लगता तब था
जब अधरों पर गीत तुम्हारा
अन्तर के सारे तार बजे थे
जीवन में दो कदम चले थे
तुम मेरा सर्वस्व नहीं हो
फिर भी जाने अनजाने क्यों?
मेरे सगे स्नेही लगते।
कोयल अनजानी लगती है
रोज पुराना राग अलापे
आने वाले प्रहर सुखद हैं
जाने वाले वर्तमान क्षण
नहीं और है इंतज़ार फिर
शुभ सदा तुम्हारा चाहा मैंने
फेर लिया मुख जाते-जाते
आसमान की बदली लगते।
मेरे सगे स्नेही लगते।
पत्थर से ठोकर खाते ही
अनुभव यदि हो जाता पग को
फिर मै उन राहों में
फूल उगाता आता कैसे
प्रेम दिया
पर न्याय नहीं,
सन्नाटों के भँवरे लगते।
मेरे सगे स्नेही लगते।
यह भावप्रवणता नहीं और क्या?
जिस सागर में डूब रहे हम
जिन्हें तैरना भी आता था
वे भी डूबे
जिस प्रेम-गंगा में हम तैरे थे
वह गंगा उनको ले डूबी
सारे अवरोधों से नाता
नहीं छूट पाया तो क्या है
गरम दूध से जलकर
फिर भी गरम दूध पीना न छूटा
हँस-हँसकर, रो-रोकर
ठहरे पानी में पत्थर से
लहरों का बन जाना देखा
चार घड़ी के जीवन में
प्रेम के दीप जलाने लगते।
मेरे सगे स्नेही लगते।
1 जून 2005 |