|  | 
                  वह आवाज अक्सर मेरा पीछा करती है
 दिल्ली की ठंडी सुबहों में
 अक्सर
 एक जिन्दगी को
 देखा करता था
 बुझते हुए,
 
 वह पेड़ के तले
 इर्द गिर्द बिखरे सिक्कों को
 काँपते हाथों से
 बीनने की नाकाम
 कोशिश करती
 
 कभी पास से गुजरते को
 असहाय निहारती,
 कभी ना जाने क्या बुदबुदाती
 
 मैं जब भी
 उसके पास से गुजरता
 सहम जाता,
 टटोलने लगता
 जेब में पड़े चन्द सिक्के
 तब जैसे मेरे हाथ सुन्न पड़ जाते
 
 तमाम कोशिश के बावजूद
 मेरा हाथ नहीं छूट पाता
 मेरी जेब की गिरफ्त से,
 और मैं तेज कदमों से
 आगे बढ़ जाता
 
 उसकी अस्पष्ट
 पर रुह को कंपकपाँने वाली
 बुदबुदाहट "बने रहो बाबू"
 दूर तक पीछा करती मेरा
 
 अब,
 उसकी बुदबुदाहट
 तब्दील हो गई है चीख में,
 
 हालाँकि मैंने
 बदल लिया है रास्ता
 फिर भी वह आवाज
 अक्सर मेरा पीछा करती है।
 
                  २० अप्रैल २००९ |